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क्या चाहिए ….सीता या आधुनिक पारो???

Dual Face
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आज पूरे भारत में केवल एक सुर्खी है जो सारे के सारे समाचारपत्रों में छाया हुआ है. महिला आरक्षण विधेयक. आज अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस भी है. आज के दिन महिलाओं के अधिकारों की बात करना काफी अच्छा लग रहा है. महिलाएं भी काफी उत्सुक है की जल्द से जल्द ये विधेयक पास हो जाये और उन्हें उनका हक मिले. क्या हक मिलना चाहिए?
मैं महिलाओं के हक मिलने के विरोध में नहीं हूँ . पर ये जरूरी है की हम एक बार फिर से आज की महिलाओं की हालिया स्तिथि पर गौर करे. मैं हाल ही में एक समान्नित विश्वविद्यालय के प्रांगन में स्थित एक टेलिफोन बूथ पर अपने एक मित्र का इंतजार कर रहा था जो की उसी विश्वविद्यालय का छात्र है. वहां कुछ छात्राए एक ढाबे के पास चाय की चुस्किओं और सुलगती सिगरेट के साथ इसी विषय पे बात कर रहे थे. अब लड़किओं और महिलाओं को यूं पब्लिकली सिगरेट पीना मुझे आश्चर्यचकित नहीं करता. उसमे से एक लड़की कहती है “ये तो हमारा हक है जो इन पुरुषो ने मार रखा है”
“पुरुषों ने समाज को अपनी जागीर समझ रखा है मेरा वश चले तो इन सबको गोली मर दूं”
ये कहते हुए उसने सिगरेट दूसरी लड़की को बढाया. दूसरी लड़की ने सिगरेट का भरपूर कश लिया और धुआं छोड़ते हुए बोली ” छोड़ न यार आज हम इन मर्दों से किस बात में कम है, आज दोनों जेंडर सामान ही है और हम कई क्षेत्रो में उनसे बेहतर ही है”
आज की औरत खुद को असहाय अबला बिलकुल नहीं समझती ये तो हमारे और आपके मन की ग़लतफहमी हैं. आज हर औरत खुद को मर्दों से बेहतर समझती है. वे जेंडर समानता की वकालत करती है. अगर जेंडर समानता की ही बात है तो क्या जरुरत है इस महिला आरक्षण विधेयक की?
आपको नहीं लगता जिस देश की महिलाएं जेंडर एकुँलिटी की वकालत करती है वहा हमे उन्हें आरक्षण दे कर उनका मनोबल नहीं तोडना चाहिए? पहले महिलाएं खुद तय करे की वो आरक्षण चाहती भी है की नहीं? क्यूँ हम औरतो को कमजोर समझने की भूल कर रहे है?
आज किस जगह महिलाये अपना वर्चस्वा नहीं कायम की हुई हैं. आज की महिलाओं को किस बात की आज़ादी नहीं है?
आप हो सकता है की मेरे मतों से सहमत नहीं हो पर ये सच है की आज महिलाओं के दायरे सीमित करने होंगे नहीं तो जो दूरगामी परिणाम हमे झेलने पड़ सकते है उसकी कल्पना भी आप नहीं कर सकते.
आज महिलाये खुल कर सेक्स जैसे विषयों पे बोल रही है और अगर किये हुए सर्वे को पढ़े तो आश्चर्य ही होगा की कभी हमारे देश में सीता और अनुसुइयन जैसी महान महिलाये हुआ करती थी. आज की औरतों और लड़किओं की आदर्श सीता नहीं आधुनिक पारो हैं जो खुल कर अपने काम भावनाओं को जाहिर करती है. जब उनसे पुछा जाता है इस बारे में तो कहती है “क्या बुरा है…. मर्द करे तो ठीक है और हम करे तो पाप”
ये जबाब नहीं है ये उनका एक बहाना है जिसमे वो अपनी गलतिओं को छुपाना चाहती है. यहाँ भी अगर देखा जाये तो वो अपरोक्ष रूप से जेंडर एकुँलिटी की ही बात कर रही है. आज कल बिन ब्याही माँ बन ने का भी चलन शुरू हो गया है. क्या जरुरत है इन नए उपयोगो का? क्या हमारी संस्कृति ऐसे में सुरक्षित रह पायेगी? बिन ब्याही माँ बन ने से समाज और उस बच्चे पे क्या बीतेगी ये तो आप मुझसे ज्यादा अनुमान लगा सकते है जो यथार्थ के बिलकुल निकट ही होगा. अगर आप रोज अख़बार पढ़ते है तो जानते ही होंगे की एक सर्वे में पता चला है की अधिकतर महिलाओं ने महिलाओं के बलात्कार में उन्ही महिलाओं को दोषी बनाया है. अब यहाँ तो कोई मर्द नहीं है न? महिलाये तय करे एक आम राय आपस में की क्या चाहिए उन्हें और कैसा? अगर आरक्षण ही चाहिए तो बेकार की जेंडर एकुँलिटी की वकालत न करे. और अगर जेंडर एकुँलिटी की बात ही है तो फिर क्यों दिया जाना चाहिए इन्हें आरक्षण? बौद्ध धर्म से ले कर कई धर्मो में ये उल्लेख किया गया है कि अगर समाज को सही ढंग से चलाना है तो औरतो को उनके सीमित दायरे में रहना होगा.
आज हम राजनीती में महिलाओं को आरक्षण देना चाहते है, दीजिये पर क्या महिलाये ये जिमेदारिया उठाने के लिए तैयार है? हमें ख़ुशी होगी कि हम सीता जैसी महिलाओं को अपना आदर्श बनाये और उन्हें उनका पूरा हक दे पर हमारा ये भी कर्त्तव्य है कि हम अपनी संस्कृति को इन आधुनिक पारो से बचाए क्युकी कोई देश महान सीता जैसी महिलाओं के सशक्तिकरण से होता है पारो जैसी महिलों से नहीं.
मेरे ब्लॉग से ये बिलकुल भी निष्कर्ष नहीं निकल जाना चाहिए कि मैं पुरुषो के एकाधिराज का समर्थक हूँ पर मेरा मान ना है कि अधिकारों के साथ जिम्मेदारियों का भी आकलन जरूरी है.

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