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कह दूं तुम्हे…या चुप रहूँ?

Dual Face
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मुझे याद नहीं कब से मैं तुम्हे अपनी इन आँखों से देख रहा हूँ. पर जब भी मैंने तुम्हे देखा, तुम मुझे उतने ही वृद्ध दिखे जितना की आज दिख रहे हो.. तुम्हारे चेहरे पर ये झुरिया कल की भांति आज भी है हाँ अंतर इतना है की आज ये संख्या में थोडा ज्यादा है..वही चिपटा गाल और धसी आँखे, सर पर सफ़ेद पर आज भी काफी बाल, पतला दुबला शारीर और आज भी थोड़े मैले कपडे. कपड़ो के नाम पर आज भी वही लूंगी और आधी बाँहों का कुर्ता.
पर आज एक चीज नयी है, और दिनों की तरह तुम मेरे स्वागत के लिए अपनी बाहें नहीं फैला रहे और न ही मेरे किसी आदेश का इंतज़ार कर रहे. आज इस वयो वृद्ध शारीर ने थक कर आँखे बंद कर ली है. मैं आज भी काफी हैरान हूँ और कल भी काफी हैरान था. कल हैरान इस बात से था की क्या तुम कभी जवान भी रहे होगे? और आज हैरान हूँ कि कैसे हमेशा वृद्ध दिखने वाला ये शारीर आज आँखे बंद किये ज़मीन पर पड़ा है. यकीं नहीं होता था कि कभी तुम भी मरोगे. शायद यही जिन्दगी की सबसे बड़ी हकीकत है. सच है आज दरपी ने आँखे मूँद ली. इस वृद्ध पार्थिव शारीर के चारो और लोगो का मजमा लगा हुआ है. सभी चेहरों को मैं पहचान सकता हूँ. ज्यादातर आँखे आज अश्रु से भड़ी हुई है. पर एक ख़ामोशी अपने अन्दर लिए तुम मुझे अतीत में धकेल रहे हो. अतीत जिसमे मैं हूँ तुम हो और वो सब लोग है जिनकी सेवा तुमने की है.
तुम मेरे दादा के उम्र के हो, तुम्हारे गोद में मेरे पापा और चाचाओं ने खेला और बड़े हुए तो मेरी क्या गिनती? बिना किसी मोह के तुमने मेरे खानदान की सेवा की और बदले में दो वक़्त की रोटी मिली. मेरे घर का काम तुम्हारे बगैर हो ही नहीं सकता था. हमारी खेती और घर का काम सब देखते थे तूम. और भी नौकर थे हमारे यहाँ पर पूछ सिर्फ तुम्हारी थी. चौबीस घंटे का काम होता था तुम्हारा और चैन एक पल नहीं. काम के बीच में कभी कभी तुम बीडी पीते थे. उस वक़्त वो काफी सस्ता हुआ करता था. मैंने कई बार पूछा भी कि क्यों पीते हो?
तुम बोलते थे कि नहीं पीयूँगा तो मर जाऊंगा. मैं काफी छोटा था और मेरे पास पैसा नहीं हुआ करता था पर फिर भी कैसे कैसे पैसा बचा कर लगभग पाँच बीस पैसे तो मैं एकठे कर ही लेता था और तुम्हे उन बीडीओं के नाम पर दे दिया करता था.
तुम्हारी वफादारी कि तो मिशाल देनी होगी. इसी लिए शायद मेरे दादा ने जो कि खुद बड़े सामंत और धन प्रेमी थे तुम्हे अपने असंख्य खेतों में से एक छोटा सा खेत तुम्हरे नाम कर दिया था. तुम्हारे आगे तो फिर भी कई लोग थे पर तुम्हारे पीछे कोई नहीं था. तुम्हारी ३ शादियाँ हुई पर साथ किसी ने नहीं निभाया एक की मृत्यु हो गयी और दो कहीं भाग गयी. तुम्हारे पीछे कोई नहीं शायद यही समझ कर मेरे दादा ने तुम्हे वो खेत दे दिया था कि तुम्हारे मरने के बाद ये फिर हमारे पास आ जायेगा. तुम्हे तुम्हारे जरूरत कि सारी चीजे मेरे घर से मिल जाती थी इसलिए तुमने वो खेत अपने भाइयों को दे दिया उगा कर खाने के लिए. ये एक महान कार्य तुमने किया पर उसे भी मेरे दादा दादी ने तुम्हारी चाल समझी और तुमसे वो भी वापस छीन लिया. ज़ाहिर है इस बात से तुम दुखी हुए और तुम्हारी वफादारी तुम्हे खुद बेकार लगने लगी. तुम्हे खेत देने और छीन ने का ये खेल चलता रहा. कभी कभी तुम भी गलत थे पर भावनाओं के साथ खेलने वाले लोग ज्यादा दोषी है. मैं पढाई करने बाहर चला गया और तुम पर कुछ और अत्याचार होता रहा. इसकी जानकारी मुझे अपनी माता श्री से मिलती थी दूरभाष पर बात करते हुए. तुम्हे मेरा बाल मन कभी नहीं भूल पाया.
तुम त्याग और वफादारी के स्तम्भ थे. हमेशा सोचता था कि एक दिन वापस आऊंगा और तुम्हे तुम्हारा हक दिलाऊंगा. बीच बीच में ये सुन कर कि तुम्हारी तबियत काफी ख़राब है डर लगता था पर ये यकीं था कि तुम्हारी ये आँखे वृद्ध है तो क्या हुआ दम नहीं तोड़ेंगी. ऐसा होता भी रहा, मेरा विश्वास जीतता रहा और तुमने हिम्मत से आँखे ही नहीं खोली रखी वरन मेरे खानदान कि सेवा उसी जज्बे से की.
आज वापस आया तो तुम्हे उसी गरमजोशी के साथ मेरा स्वागत करते देखना चाहता था. आज निश्चय कर के आया था कि जो भी हो आज तुम्हे तुम्हारा हक दिला कर रहूँगा. आज अपने छोटे मिहिर को डॉक्टर के रूप में देख कर तुम्हे जो ख़ुशी होगी उसका मैं भरपूर आनद लूँगा. पर ये क्या किया तुमने? आँखे बंद कर ली? मुझे सेवा करने का मौका तक नहीं दिया. गलती मेरी है दरपी. कब तलक तुम मेरा इंतज़ार करते कब तक अपनी साँसे रोके रखते. आज मुझे दुःख है कि काश मैं थोडा पहले आ पाता. आज मेरा गर्दन झुका हुआ है तुम्हारे क़र्ज़ से. अब न तो कोई दरपी है न वो वफादारी हाँ वो ज़मीन का छोटा टुकड़ा आज भी वही है. आज मेरे आँखों में जो अश्रु है वो मेरे दोषी होने कि गवाही दे रहे है और तुम्हे कोटि कोटि श्रधांजलि भी दे रहे है. पर इतना क्या काफी है? नहीं, बिलकुल नहीं.
तुम मर गए हो पर अमर रहोगे. आज उस छोटी से ज़मीन पर कुछ होगा जो पहले नहीं हुआ. मैं उस पर एक चेरिटेबल अस्पताल बनाऊंगा तुम्हारे नाम से, जहा जरूरत मंदों का इलाज़ मुफ्त में होगा. जाते जाते भी एक नेक कार्य करते गए तुम.
मेरे मस्तिष्क में जो नेक विचार तुमने जगा दिए है अभी अभी उसे पूरा करने का प्रण लेते हुए मेरा मन तुमसे पूछ रहा है “हे महात्मा… तुम्हारे पर्थिव शारीर को साक्षी मान कर ये प्रतिज्ञा “कह दूं तुम्हे या चुप रहूँ?”

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